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Sunday, May 6, 2012

The market for horses

मैं नींद के कुछ घोड़े बेचना चाहती 
पर बिकते नहीं मेरे 
मैं मिन्नतें करती 
विनय  पूजा करती 
पर अड़ियल  टटुओं की तरह 
वो हिनहिनाते और मैं भिनभिनाती . 

रात  भर  करवट बदलती 
चादर कभी हटा देती कभी दाल  लेती 
ताकिय  कभी सर के नीचे
कभी पैरोँ  के पास ..
धरती की तरह अपनी अक्सिस  पर और 
पलंग  के चारों ओर चक्कर काटती रह्ती 

कुछ ज़ल्दी सोने वालों कि असीम अनुकम्पा बनी रहती 
सारा मार्केट कुछ ही घंटों में घोड़े से लबालब भर जाता 
और मेरा माल बिक नहीं पता 
बोनी करने वालों को कुछ गा.. कुछ कटोर शब्दों में 
मैं बहुत कुछ सुनाती ..पर कुछ नहीं बदलता ...
मैं और मेरी नींद कोसौं दूर होते 
और बीच में यह न बिकने वाले घोड़े ..

मैं खचर , गधे.. यहाँ तक कि भेड़ के दाम में भी बेचना चाहती 
पर कोई खरीदार नहीं मिलता..
लोग कहते है नींद न आना प्रेम में होने कि निशानी है.
इस बात पर मेरा मन करता..
कि इन्ही घोड़ो के परौं तले सारे बेसुरे शायरों को कुचलवा दूं !!!!

थक हार के जब घोड़े और मैं दोनों शांत ह़ो जाते ..
तो सूर्य कि पहली किरण के साथ एक आशा कि किरण दिखती 
अंतर राष्ट्रीय बाज़ार खुलने का समय हों गया..
धरती अपने अक्सिस पे घूम गयी ..
घोड़े विदेश में बिक सकते है 
मैं सोचती देर आये दुरुस्त आये.
कुछ नहीं से थोडा कुछ  सही 
दो पल के लिए ही सही ..

कुछ ही घंटे वोह घोड़े फिर वापस आ जायेंगे 
मुझे ढूँढ़ते हुए..
जीवन कि इस आपा धापी में मेरे साथ भागने के लिए ..
फिर रात में ना बिकने के लिए..
घोड़े नहीं गधे है !! 
पर मेरे है. 

Written on 6th May, 2012
(This is my second poem on sleep. The earlier one was Surrender and you win.. .. Well what can I say .. writing poems about sleep deprivation at this hour is saying enough.. Till next time.. Happy Summers !!!! :) )

Tuesday, May 31, 2011

साक्षात्कार

तारों के जंगल में अभियंता का घर 
अन्दर जाने के लिए घंटी बजायी
तो कहीं से आवाज़ आई
'स्वागत है '
आसपास कोई न था
तोह क्या यह मेरा भ्रम था 
नहीं साहब यह घंटी ही बोली थी
अभियंता के गहर की जो थी 
अन्दर जाने में लगा डर 
कहीं दरवाज़े ने हाथ मिलाया 
और खिड़की ने मुस्काया 
पर अपना प्रण हमे याद आया
आज उनसे मिलकर साक्षात्कार लेना ही था

भीतर का दृश्य बड़ा अदभुत था
न कुर्सी, न मेज़, न कालीन, न गलीचा था
कमरा ऐसे खली था जैसे किसी 
भिखारी की खाने की थाली था
हम आश्चर्य से थे दंग
तभी हमारा ध्यान हुआ भंग 
वहि आवाज़ हमारे परिचय की अभिलाषी थी
अपनी तारीफ़ में हमने बताया 
एक अख़बार से सम्बन्ध है 
यह कह कर हम हो गए चुप 
तभी एक द्वार खुला जिसके अन्दर अँधेरा था घुप्प 

हम धड़कते दिल से चल दिए उस ओर 
लगा कि पता बतने वाले ने हमे गलत दिया मोड़
चलते चलते पहुंचे जब हम एक स्थान
धड़ाम से गिरते चले गए जाने किस धाम
ईश्वर का हमने लिया नाम
अपने प्रिये जानो को किया अंतिम प्रणाम
सोच लिया था कि अब यह हमारा आखिरी समय है
लेकिन अभी हमारी जीवन यात्रा बची थी
शायद इसलिए भाग्य को हम पर कृपा हुई
और हमारे प्राणों की रक्षा हुई

हमारे सब्र का बांध बस अब टूटने ही वाला था 
यह कोई साक्षात्कार था या हमारे संपादक का प्रतिकार
आज बच गए तो  सबको देख लेगे
येही सोच कर हम आगे बढ़े थे
उस घडी को हम नहीं पाएंगे भूल
जिसको देख कर हम हर्ष से गए थे फूल
हमारे समक्ष वह कक्ष था जो अभियंता के अविष्कारों से भरा था

वह अभियंता तथा वैज्ञानिक भी थे 
परन्तु दिखते वह किसी  चिड़ियाघर के नमूने थे
उनकी आधी बातें तोह हमारे सर के ऊपर से निकल गयी दूर 
कितनी हमने लिखी कितनी कानों के सफ़र से बहार हो गयी 
हम उनके अविष्कारों को समझने में असमर्थ थे
और वह हमारी इस विवशता से अनभिज्ञ थे
जब उनसे लिया गया समय हुआ समाप्त 
तो हमे खुली हवा में जाने का सुख होने वाला था प्राप्त 

हम फिर उसी राह से लौटने पर घबराये 
और अनुरोध कर एक दुसरे मार्ग का पता पाए 
पर वह मार्ग तोह पहले से अधिक यम का दूत था
हम वहां से बहार कैसे आये यह हमारी बहादुरी का सबूत था
मन ही मन राम को करते प्रणाम 
कुछ बाते हमने मन में ली ठान
सबसे पहले अपने संपादक से लेंगे इस विश्वासघात का सार
फिर समाचार पत्र की इस नौकरी का करेंगे तिरस्कार 
और जीवन में अब कभी किसी अभियंता का न लेंगे साक्षात्कार 

Written in 1995.

( Was completely blank this month about which poem to write, so dug out an old poem to share. One of my very few Hindi poems. Had written it in class IX and it was published in the school magazine also. Till next time ..प्रणाम :) )